काले धन के जड़-मूल, मैकाले-पद्धति के स्कूल

मनोज ज्वाला

काले धन का निर्माण वस्तुतः व्यक्ति के काले-कलुषित मन के कारण होता है। इसका सम्बन्ध आर्थिक, वाणिज्यिक, सामाजिक, शासनिक दुर्व्यवस्था से कम; मानसिक, मनोवैज्ञानिक अवस्था से ज्यादा है। व्यक्ति को पुरुषार्थपूर्वक धनार्जन करने वाला उद्यमी बनाने में अथवा अनीतिपूर्वक धन कमाने व धन संचय करने की मनोवृति से युक्त स्वार्थी-प्रपंची बनाने में उसकी शिक्षा की भूमिका ही सर्वाधिक होती है। शिक्षा की मैकाले पद्धति के स्कूलों-कॉलेजों में पढ़ने वाले बच्चे आगे चलकर समाज के ऐसे व्यक्ति बनते हैं, जो किसी भी तरीके से बेशुमार धन-संचय करना ही अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य मानते हैं। इस जीवनोद्देश्य की प्राप्ति के लिए धन कमाने की तमाम अवैध-अनुचित रीति-नीति का इस्तेमाल करते हैं, जिससे काले धन की उत्पत्ति होती है। इस अभारतीय शिक्षा-पद्धति में शिक्षार्थियों को नीति-धर्म-सत्कर्म-संस्कार-पुण्य-परमार्थ को छोड़ इनसे उलट तमाम तरह के अनीति-अधर्म-छल-छद्म-स्वार्थ के तिकड़म-तकनीक ही सिखाये-पढ़ाये जाते हैं, जिनसे काले मन और काले धन का सृजन-संवर्द्धन होता है। आज दुनियाभर में, विशेषकर अपने देश में व्याप्त सभी प्रकार की समस्याओं में सबसे प्रमुख है- भ्रष्टाचार, जिसके मूल में है चारित्रिक पतन और नैतिक मूल्यों का क्षरण। इसका सीधा सम्बन्ध शिक्षा से है। चारित्रिक पतन और नैतिक-क्षरण का अर्थ सिर्फ कानून-उल्लंघन मात्र नहीं है। यह तो इसकी पश्चिमी अवधारणा है। भारतीय जीवन-दर्शन और समाज-दृष्टि में व्यक्ति-परिवार-समाज-देश-राष्ट्र के कल्याण के विरूद्ध किया जाने वाला आचरण चरित्रहीनता है और किसी भी स्तर की चरित्रहीनता यहां नीति के विरूद्ध, अनैतिकता है। हालांकि भारतीय अर्थ में ‘नीति’ भी पश्चिम की ‘पॉलिसी’ से सर्वथा भिन्न है। यहां आचरण की शुचिता चरित्र है और चरित्र की वैचारिकता नीति है। जीवनोपयोगी व मोक्षलक्षी विद्याओं की शिक्षा के साथ-साथ उसके सर्वकल्याणकारी उपयोग से युक्त नीति व तदनुसार उत्कृष्ट चरित्र-चिन्तन की दीक्षा का समन्वय ही भारतीय शिक्षण-पद्धति की विशिष्टता है।पश्चिम की औद्योगिक क्रांति के औपनिवेशिक उफान से व्यक्ति की जीवन-शैली परिवर्तित हो गई तथा चरित्र व चिन्तन भी बदल गए, नैतिक मूल्य क्षरित होते गए। ये सारे बदलाव व्यक्ति और समाज को बाजार की दिशा में उन्मुख कर दिए। इसका उद्देश्य उपभोग व मुनाफा हो गया। शिक्षा को विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन करने, उनके बाजार निर्मित करने और अधिकाधिक धन अर्जित करने के ज्ञान का माध्यम बना दिया गया। ब्रिटिश उपनिवेशकों ने अपनी काली कमाई-विषयक छद्म औपनिवेशिक नीति के तहत हमारी भारतीय शिक्षण-पद्धति अर्थात गुरुकुल-परम्परा को उखाड़कर हमारे बच्चों-पीढ़ियों को अपना शासनिक उपकरण बनाने के जिस कुटिल उद्देश्य से मैकाले शिक्षण पद्धति हमारे ऊपर थोप दी। उसमें चरित्र-निर्माण का पक्ष था ही नहीं। आज भी नहीं है। अपने देश में काले धन का सृजन-संग्रहण करने वालों में पाश्चात्य पद्धति के शिक्षितों की संख्या ही सर्वाधिक है। धार्मिक-आध्यात्मिक विचारों-आदर्शों की दीक्षा-युक्त भारतीय शिक्षा से सम्पन्न लोग आज भी बेईमान नहीं हैं। यह विडम्बना ही है कि अंग्रेजों ने अपनी काली कमाई के लिए भारत पर अंग्रेजी शासन को सुदृढ़ करने के निमित्त भारतीय जीवन-चिन्तन व समाज-दर्शन के विरूद्ध जिस मैकाले शिक्षण-पद्धति को हमारे ऊपर थोप रखा था, वही पद्धति अंग्रेजों के चले जाने के बाद  भी भारत में यथावत कायम है।आज शिक्षा की उपादेयता सिर्फ और सिर्फ नौकरी पाने व धन कमाने की जरूरतभर है, जबकि नौकरियां इतनी कम हैं कि सबके लिए सुलभ हो ही नहीं सकती। धनार्जन के स्रोत चूंकि औपनिवेशिक अर्थनीति की वजह से आज भी सिमटे हुए हैं। इस कारण काली कमाई की प्रवृति एवं  कालेधन की व्याप्ति बढ़ती जा रही है। सात्विक स्वावलम्बन तथा प्राकृतिक सह-जीवन और आध्यात्मिक उन्नयन की जीवन-विद्या से कोसों दूर की इस शिक्षण-पद्धति में सर्वकल्याणकारी भाव का सर्वथा अभाव है। यह बिल्कुल एकाकी व एक-पक्षीय है। मात्र पदार्थ और स्वार्थ ही इसके केन्द्र में हैं। जिसके कारण भौतिक विकास की ऊंचाइयों को छूने में सहायक होने के बावजूद समाज की समस्त बुराइयों, समस्याओं एवं अवांछनीयताओं की वाहक भी यही है।हमारे देश की समस्त समस्याओं की जड़-मूल मैकाले पद्धति के स्कूल ही हैं, क्योंकि ये भारतीय जीवन-चिन्तन और समाज-दर्शन के विरूद्ध ही नहीं, विरोधी भी हैं। प्राचीन ‘भारतीय गुरूकुलीय शिक्षण-पद्धति’ में पदार्थ और अध्यात्म, दोनों दो पहलू रहे हैं शिक्षा के, जिनके बीच में परमार्थ और मोक्ष इसका उद्देश्य रहा है। पदार्थ-ज्ञान से शरीर व संसार की जरूरतें पूरी होती हैं, तो अध्यात्म-ज्ञान की दीक्षा-विद्या से आत्मा को परमानन्द की प्राप्ति।परमार्थ भाव व्यक्ति को परिवार-समाज-राष्ट्र के प्रति ही नहीं, बल्कि प्रकृति-पर्यावरण के प्रति भी कर्त्तव्यपरायण व निष्ठावान बनाता है। मोक्ष भाव उसे भ्रष्टाचारी-व्यभिचारी बनने व काली कमाई करने के कुमार्ग पर जाने से रोकता है और आत्मसंयमी बनाता है। अतएव, काले धन के विष-वृक्ष से समाज व देश को अगर सचमुच ही मुक्त करना है, तो इसकी पत्तियों व डालियों के ‘विमुद्रीकरण’ अथवा लेन-देन की प्रक्रिया के ‘कम्प्युटरीकरण’ से कुछ नहीं होगा। इसके लिए इसके जड़-मूल अर्थात दीक्षाहीन पाश्चात्य शिक्षा-पद्धति को उखाड़ कर भारतीय शिक्षण-पद्धति का पुनर्पोषण करना होगा।

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